मैंने अकसर विकास बनाम विनाश पर बहुत से लोगों का मत सुना है उनको समझने की कोशिश भी की। ऐसी कितनी ही बहसों का मैं खुद हिस्सा भी रही हूं। मगर इस साल जून में जिस आपदा का शिकार उत्तराखंड जैसे खूबसूरत राज्य को होना पड़ा वो इसी पृष्ठभूमि पर खड़ी एक त्रासदी थी। ये सब कुछ हो जाने के बाद जब मैंने सारी परिस्थितियों को समझना चाहा तो उसका निष्कर्ष यही निकला कि विकास बनाम विनाश सिर्फ बहस करने का एक मुद्दा नहीं है इस देश की एक कड़वी सच्चाई है।
पर्यावरण के नियमों को ताक पर रख कर हर तरह से
यहां पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है। ढलानों पर होटल, मकान, दुकान का निर्माण
करना। उत्तराखंड के पहाड़ो के लिए ये कानून है कि वहां 12 मीटर से ऊंची इमारत का
निर्माण नहीं होगा। इस कानून का कितना पालन वहां किया जा रहा है ये कहने की ज़रुरत
नहीं है। जिस तरफ देखेगे तो आप को बहुमंजिला इमारते ही नज़र आएंगी। ऐसा नहीं है कि
हमारे राजनीतिज्ञ इन सभी चीज़ो से अनजान है। उनके खुद के हित इन सब चीज़ो से कहीं
ना कहीं जुडे है। नहीं तो ऐसा कैसे संभव है कि जिस राज्य ने सबसे पहले आपदा
मंत्रालय जैसा विभाग बनाया वो ऐसी आपदाओं का सामना नहीं कर सका। इससे ये बात भी
साफ है कि किस तरह से इस मंत्रालय में लालफिताशाही अपने पैर जमा चुकी है।
इस सब का ठीकरा सरकार के सिर पर फोड़ कर हम भी
नहीं बच सकते क्योंकि हम सब को भी इन सारी बातों का ध्यान खुद भी रखना चाहिए, न
सिर्फ उन लोगों को जो वहां के स्थानीय निवासी हैं बल्कि उनको भी जो वहां पर्यटक बन
कर जाते हैं।
पहाड़ों
में विकास का श्रेय अगर पर्यटन को दिया जाए तो वहां हो रहे विनाश के लिए भी पर्यटन
काफी हद तक ज़िम्मेदार है। आज़ादी के बाद विकास के नाम पर ही पर्वतीय क्षेत्रों
में राज्य बसाए गए थे। इस सब के लिए जंगलों की अंधाधुध कटाई, पहाड़ों का काटा
जाना, चट्टानों को विस्फोट से उड़ा कर हम अपना काम तो कर लेते हैं मगर कहीं न कहीं
हम ये भूल रहें हैं कि ऐसा कर के हम अपनी ही प्राकृतिक धरोहर को खोखला कर रहे हैं।
जहां तक पहाड़ो को काटने की बात है तो कई बार ये दलील दी जाती है कि ऐसा ना कर के
हम पहाड़ी इलाकों में विकास पहुंचाने में अक्षम हैं, किसी तरह इस तर्क को मान भी ले तो क्या ये
ज़रुरी है कि विस्फोट कर के ही सुरंग निर्माण
किया जाए। बिल्कुल नहीं हमारे पास इसका विकल्प है सुरंग बनाने के लिए अगर
टनल बोरिंग मशीन का प्रयोग करा जाए तो इससे पहाड़ न तो कमज़ोर होते है न ही खोखले। मगर आज
हमने काम के खर्चे और समय बचाने के लिए विस्फोट करना ज्यादा सही समझ रखा है।
केदारनाथ जहां सब से ज्यादा तबाही हुई वहां के
ऊंचे इलाको में कई ग्लेशियर हैं वहां ज्यादा ज़ोर से बोलने तक की मनाही है। ये सब
जानते हुए भी गुप्तकाशी से केदारनाथ तक के लिए कई हवाई जहाज़ रोज़ उड़ाने भरते
हैं। जिन इलाकों में ज़ोर से बोलने तक की मनाही है वहां रोज़ हवाई जहाज का शोर हो
तो यकीनन ये उन ग्लेशियरो के लिए अच्छा नहीं है। उत्तराखंड में कई बिजली
परियोजनाएं चल रहीं है इन सब से तो सभी वाकिफ है मगर क्या हम ये भी जानते है कि इस सब से जितना भी मलबा
निकलता है वो कहां जाता है?
बढ़िया...अच्छा लिखा है!! लेकिन ये भी लिखना था की राजनीतिक गंदगी ने इस आपदा को भी राजनीतिक दांव-पेंच बना डाला. इस प्राकृतिक आपदा का भी राजनीतिकीकरण कर डाला.
ReplyDeleteयही तो खास बात है हमारे राजनीतिज्ञों की ...
ReplyDeleteमिड डे मील से ले कर इस तरह के दुखद हादसे में किचड खुद के दामन पर न लगे... इसलिए दूसरो पर दोष मढ़ देते हैं।
इसीलिए इस्तीफा मांगने जैसी कला में सभी निपुण हैं।