Powered By Blogger

Monday 8 July 2013

तबाही का जिम्मेदार कौन ?




मैंने अकसर विकास बनाम विनाश पर बहुत से लोगों का मत सुना है उनको समझने की कोशिश भी की।  ऐसी कितनी ही बहसों का मैं खुद हिस्सा भी रही हूं। मगर इस साल जून में जिस आपदा का शिकार उत्तराखंड जैसे खूबसूरत राज्य को होना पड़ा वो इसी पृष्ठभूमि पर खड़ी एक त्रासदी थी। ये सब कुछ हो जाने के बाद जब मैंने सारी परिस्थितियों को समझना चाहा तो उसका निष्कर्ष यही निकला कि विकास बनाम विनाश सिर्फ बहस करने का एक मुद्दा नहीं है इस देश की एक कड़वी सच्चाई है।


उत्तराखंड में जो भी हुआ हम उसे सिर्फ प्राकृतिक आपदा कह कर टालना क्यों चाह रहे हैं जबकि हम यह जानते है कि इस सब के पीछे हमारे स्वार्थ थे। हम सब ये अच्छी तरह जानते थे कि जो हम बो रहे हैं वो कोई ऐसी फसल है जो हमें एक ना एक दिन नुकसान ज़रुर पहुंचाएगी। सब कुछ जानते हुए हमने न तो कानूनों की कुछ एहमियत समझी न अपनी परंपराओ की। पहले की धार्मिक यात्राओं से अगर आज की यात्राओं की तुलना करें तो मुनाफे की होड में हमने अपनी कई मान्यताओं को भुला दिया। 1950 से पहले जो यात्राएं होती थी वो चट्टी व्यवस्था के अनुसार हुआ करती थी। इस व्यवस्था में हर पांच किलोमीटर पर ठहरने का एक पड़ाव होता था जहां सारी व्यवस्था की जाती थी। सड़क निर्माण के बाद बहुत तेज़ी से यहां बस्तियों बस गई और आज उन पड़ावो की जगह रंग बिरंगे होटलों ने ले ली है।



पर्यावरण के नियमों को ताक पर रख कर हर तरह से यहां पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है। ढलानों पर होटल, मकान, दुकान का निर्माण करना। उत्तराखंड के पहाड़ो के लिए ये कानून है कि वहां 12 मीटर से ऊंची इमारत का निर्माण नहीं होगा। इस कानून का कितना पालन वहां किया जा रहा है ये कहने की ज़रुरत नहीं है। जिस तरफ देखेगे तो आप को बहुमंजिला इमारते ही नज़र आएंगी। ऐसा नहीं है कि हमारे राजनीतिज्ञ इन सभी चीज़ो से अनजान है। उनके खुद के हित इन सब चीज़ो से कहीं ना कहीं जुडे है। नहीं तो ऐसा कैसे संभव है कि जिस राज्य ने सबसे पहले आपदा मंत्रालय जैसा विभाग बनाया वो ऐसी आपदाओं का सामना नहीं कर सका। इससे ये बात भी साफ है कि किस तरह से इस मंत्रालय में लालफिताशाही अपने पैर जमा चुकी है।

इस सब का ठीकरा सरकार के सिर पर फोड़ कर हम भी नहीं बच सकते क्योंकि हम सब को भी इन सारी बातों का ध्यान खुद भी रखना चाहिए, न सिर्फ उन लोगों को जो वहां के स्थानीय निवासी हैं बल्कि उनको भी जो वहां पर्यटक बन कर जाते हैं।   

पहाड़ों में विकास का श्रेय अगर पर्यटन को दिया जाए तो वहां हो रहे विनाश के लिए भी पर्यटन काफी हद तक ज़िम्मेदार है। आज़ादी के बाद विकास के नाम पर ही पर्वतीय क्षेत्रों में राज्य बसाए गए थे। इस सब के लिए जंगलों की अंधाधुध कटाई, पहाड़ों का काटा जाना, चट्टानों को विस्फोट से उड़ा कर हम अपना काम तो कर लेते हैं मगर कहीं न कहीं हम ये भूल रहें हैं कि ऐसा कर के हम अपनी ही प्राकृतिक धरोहर को खोखला कर रहे हैं। जहां तक पहाड़ो को काटने की बात है तो कई बार ये दलील दी जाती है कि ऐसा ना कर के हम पहाड़ी इलाकों में विकास पहुंचाने में अक्षम हैं,  किसी तरह इस तर्क को मान भी ले तो क्या ये ज़रुरी है कि विस्फोट कर के ही सुरंग निर्माण  किया जाए। बिल्कुल नहीं हमारे पास इसका विकल्प है सुरंग बनाने के लिए अगर टनल बोरिंग मशीन का प्रयोग करा जाए तो इससे  पहाड़ न तो कमज़ोर होते है न ही खोखले। मगर आज हमने काम के खर्चे और समय बचाने के लिए विस्फोट करना ज्यादा सही समझ रखा है।

केदारनाथ जहां सब से ज्यादा तबाही हुई वहां के ऊंचे इलाको में कई ग्लेशियर हैं वहां ज्यादा ज़ोर से बोलने तक की मनाही है। ये सब जानते हुए भी गुप्तकाशी से केदारनाथ तक के लिए कई हवाई जहाज़ रोज़ उड़ाने भरते हैं। जिन इलाकों में ज़ोर से बोलने तक की मनाही है वहां रोज़ हवाई जहाज का शोर हो तो यकीनन ये उन ग्लेशियरो के लिए अच्छा नहीं है। उत्तराखंड में कई बिजली परियोजनाएं चल रहीं है इन सब से तो सभी वाकिफ है मगर क्या  हम ये भी जानते है कि इस सब से जितना भी मलबा निकलता है वो कहां जाता है?


कहीं और नहीं उन्ही नदियों में जिनकी पूजा हम किया करते हैं। ऐसे में जब ये नदियां अपने पूरे उफान पर होती है तो अपने साथ हज़ारों बस्तियां बहा ले जाती हैं। तो अब हम ये क्यों कह रहे हैं कि अलकनंदा नाराज़ है या मंदकिनी नाराज़ है? हम क्या उनकी नाराज़गी का कारण नहीं जानतेहम जानते हैं। सब जानते है शायद तभी अपनी गलतियों का ठीकरा भगवान पर फोड़ कर इसको प्राकृतिक आपदा बता रहे हैं। आज हम ये भूल गए है कि प्रकृति के अस्तित्व को साथ ले कर ही हम अपना विकास भी कर सकते हैं। वरना हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हम विस्फोट के ऐसे ढेर पर बैठे है जो बिना किसी चेतावनी के फट जाएगा और हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे।  

Saturday 5 January 2013

सिर्फ आंदोलन नहीं नारी आंदोलन




इतिहास अब उसकी भी कहानी है । वो जो 15 दिन तक जीने के लिए मौत से लड़ती रही।

वो जो खुद मौत की नींद में सो गई मगर अपने पीछे हज़ारो लड़कियों को जगा कर चली गई। अब से पहले कभी भी न्याय के लिए इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं ने एकजुट हो कर आवाज़ नहीं उठाई थी। यह आंदोलन सिर्फ न्याय के लिए एक आंदोलन नहीं था बल्कि एक चुपी टूटने का संकेत था । संकेत था कि बस ! अब और नहीं । संकेत था कि कोई और लड़की अब किसी की हवस का शिकार नहीं बनेगी। संकेत यह भी था कि अब कोई भी अत्याचारों को नहीं सहेगी।

      कहने को तो यह दुनिया का पहला ऐसा अनोखा मामला नहीं था कि जिस से अब तक सब अनजान थे। महिलाओं के लिए भी राह चलते छेडखानी आम बात हो गई थी। इसको या तो सब ने नज़रअंदाज करना सिख लिया था या इसी तरह की घटनाओं के साथ जीना सिख लिया था। इस घटना के होते ही सभी महिलाओं ने पीड़ित युवती के साथ अपनी या अपनी बेटी, बहन की छवि को उसमें देखा जो रोज़ ऐसी छेडखानी का सामना करती है। सबसे बड़ा कारण यही था जिससे ज्यादा से ज्यादा महिलाएं इस आंदोलन में जुड़ी। इसमें ना सिर्फ छात्राएं थी बल्कि कामकाजी वर्ग के साथ साथ गृहणियां भी शामिल थी। सभी वर्ग की महिलाए खुद से इस आंदोलन का जुड़ाव महसुस कर रही थी।

      सभी इसको सुधार की एक सीढ़ी की तरह  देख रहीं हैं। सुधार मानसिकता में, सुधार समाज में , सुधार महिलाओं की स्थिति में। रोज़ेन बर ने कहा है कि महिलाओं को यह बात समझनी अभी बाकि है कि उसको बराबरी या सत्ता कोई नहीं देगा उसे इसको छीनना ही होगा। यह बात अब महिलाओं के समझ में आ गई है। इस लिए अब वो अपने अधिकारों अपनी स्वतंत्रता के लिए उठ खड़ी हुई हैं। वो अब थक चुकी हैं कि महिला होने के नाते उसे समाज में हर कदम पर समझौते करने पड़ेगे। आखिर वो ही क्यों ? इस सवाल का जवाब ढुढ़ने के लिए ही सब सड़को पर उतरे थे एक आवाज़ बन कर। लड़कियों में यह जज़्बा था कि वो जो कभी इन सब मामलों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती थी चुपचाप सब सहती थी इस के माध्यम से ही सही समाज में अपनी आवाज़ तो उठा पाएंगी।

      औरतों को हमारे समाज में कभी भी बराबरी का मौका नहीं मिलता । हमेशा से ही एक पितृसत्ता उस के ऊपर होती है। शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और बुढ़ापे में आ कर बेटा। कदम कदम पर उसको किसी का मौहताज कर दिया जाता है। हमेशा उसको खुले प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में आने के लिए जद्दोजहत करनी पड़ती है। उसको सिखाया जाता है कि ये दुनिया भले सब के लिए गोल है मगर उसके लिए यह चपटी है। अगर वो यहा घूमेगी तो एक सिरे पर आ कर गिर जाएगी। इसलिए हमेशा एक बैसाखी उसको पकड़ा दी जाती है। जिसकी शक्ल हर कदम पर बदल दी जाती है।

      इसलिए इस आंदोलन को एक नारी आंदोलन की तरह देखा जाना जरुरी हैं। ना बल्कि देखा जाना इसके लिए ऐसे ठोस कदम भी उठाने की ज़रुरत है जिसके रहते फिर कभी स्त्रियों को किसी तरह की बैसाखी की ज़रुरत ना पड़े और ना ही अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जरुरत पड़े।