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Saturday 21 November 2015

विश्व में भारत के पास नहीं शौचालय



भारत में 7 करोड़ से ज्यादा लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है। देखा जाए तो दुनिया में 65 करोड़ आबादी के पास साफ पानी की व्यवस्था नहीं है। जबकि 2.3 अरब लोगों के पास शौचालय की सुविधा मौजूद ही नहीं है। हालांकि भारत की स्थिति को सुधारने के लिए स्वच्छ भारत जैसे अभियान चलाए गए हैं लेकिन इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन वाटर ऐड की रिपोर्ट में भारत की स्थिति को सबसे खराब बताया गया है।

खुले में शौच करने को मजबूर
भारत ऐसे देशों में अव्वल है जिनके पास शौचालय की व्यवस्था नहीं है। साथ ही भारत ऐसे देशों की सूची में भी अव्वल है जो खुले में शौच करने को मजबूर हैं।

बढ़ रही बिमारियां
इसमें कोई शक नहीं है कि भारत में शौचालय की कमी के कारण लोगों के साथ स्वस्थ्य संबंधी समस्याएं भी सामने आ रही हैं। विश्व स्वस्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल लगभग डेढ़ लाख बच्चे डायरिया के कारण पांच साल से पहले मर जाते हैं। संगठन के अनुसार इसका प्रभाव मातृ-शिशु मृत्यु दर पर भी पड़ता है।


इन देशों के पास नहीं शौचालय
देश                    जनसंख्या
भारत              774,222,300
चीन                329,851,200
नाइजीरिया          130,387,200
इंडोनेशिया          100,168,400
इथोपिया               71,217,200
पाकिस्तान             68,666,800
बांग्लादेश             63,267,800
कांगो                  50,833,300
तंजानिया               44,159,400
रूस                     39,468,700

 खुले में शौच करने को मजबूर
देश                      जनसंख्या(मिलियन)
भारत                      567.4
इंडोनेशिया                   52.2
पाकिस्तान                    25.1
बुर्किना फासो                 9.9
नेपाल                           9
कंबोडिया                     7.4
बेनिन                         5.9
नाइजीरिया                     4.6
हैती                              2

01 लाख 40 हजार पांच साल से कम बच्चे डायरिया के कारण मर जाते हैं
40 फीसदी बच्चों की लंबाई औसत लंबाई से कम रह जाती है
23 फीसदी हुआ है पिछले पंद्रह सालों में स्वच्छता में सुधार

आगे क्या
-2019 तक खुले में शौच करने की समस्या को खत्म करना चाहती है सरकार
-अगले चार सालों में तेजी से करना होगा भारत की स्थिति में सुधार
-9 करोड़ 90 लाख घरों तक पहुंचानी है भारत सरकार को शौचालय की सुविधा




फ्रांस हमले से होंगे यूरोप में आर्थिक बदलाव


पेरिस हमले के बाद यूरोप के देशों में सुरक्षा के मद्देनजर कई बड़े बदलाव किए जाएंगे। इन बदलावों से जहां एक तरफ यूरोप में सुरक्षा बढ़ेगी वहीं इससे यूरोप की अर्थव्यवस्था पर बोझ भी बढ़ेगा। शरणार्थी संकट और व्यापार में आने वाली बाधाओं से यूरोप की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ जाएगी। आईए जानते हैं इन्हीं बदलावों के बारे में...

बढ़ेगी जासूसी 

यूरोप के अधिकतर देश निगरानी कार्यक्रम पर जोर देंगे। निगरानी के लिए इलेक्ट्रिॉनिक यंत्रों का इस्तेमाल किया जाएगा। ब्रिटेन में हाल ही में स्नूपर चार्टर नाम का एक बिल लाया गया है। इस बिल से स्थानीय पुलिस को अधिकार मिल गया है कि वह किसी के भी कंप्यूटर को हैक कर निजी जानकारी हासिल कर सकते हैं। ऐसे कानूनों की मांग दूसरे देशों में भी बढ़ेगी। हालांकि फ्रांस और जर्मनी हमेशा निगरानी कार्यक्रमों के विरोधी रहे हैं।

संकट में शरणार्थी नीति 

अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सका है लेकिन एक आतंकी के बारे में कहा जा रहा है कि वह ग्रीस की सीमा से शरणार्थी के रूप में फ्रांस तक आया था। इससे शरणार्थियों की समस्या काफी बढ़ जाएगी। यूरोपीय संघ की तरफ से 1 लाख 60 हजार शरणार्थियों को अलग-अलग देशों में शरण देने की बात कही गई है लेकिन इस हमले के बाद देश सुरक्षा का हवाला देते हुए शरणार्थियों को शरण देने से इनकार कर सकते हैं।

सीमाओं में बटेगा यूरोप

यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह मानी जाती है कि इन देशों के बीच में सीमाएं नहीं है। लेकिन शरणार्थी संकट के बाद से ही कुछ देशों ने अपनी सीमाओं पर बाड़ लगा दी थी। ऐसे देशों की संख्या बढ़ सकती है इससे ‘बॉर्डर फ्री ट्रेड’ नीतियों को काफी नुकसान होगा और व्यापार कमजोर पड़ेगा।

घटेगी मार्केल की लोकप्रियता 

शुरू से ही जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने जासूसी कार्यक्रमों का विरोध किया है। साथ ही जर्मनी शरणार्थियों को शरण देने वाले देशों में भी अव्वल है। लेकिन हमले के बाद मार्केल की छवि कमजोर पड़ सकती है। अगर मार्केल अपने पद से हटाई जाती हैं तो यूरोपीय संघ को एकजुट रख पाना मुश्किल हो जाएगा।

सीरिया सरकार का मुद्दा हुआ फीका

इस हमले ने दो दिन पहले वियना बैठक में सीरिया में होने वाले चुनाव के मुद्दे को एक बार दोबारा फीका कर दिया है। इस बैठक में दुनिया की बड़ी शक्तियां सीरिया में नई सरकार बनाने की बात पर सहमत हो गई थी। इस सहमति के बाद से लग रहा था कि यूरोप, सीरिया और रूस के बीच में संबंध सुधरेंगे लेकिन अब ऐसा कहना काफी मुश्किल है।





पांच गलतियों से बना आईएस खूंखार


आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के पैदा होने के लिए अक्सर पश्चिमी और अमेरिकी देशों की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन आईएस का खतरा दुनिया पर काफी पहले से था, जिसको लगातार नजरअंदाज किया गया। इस्लामिक स्टेट के बनने में प्रशासनिक तौर पर कई ऐसी गलतियां हुईं जिन्होंने आईएस को और खूंखार बना दिया।

गलती 1
खतरे को समझने में भूल
अमेरिका की तरफ से 2011 में इराक से सेना हटाई गई तो उसे लगा कि उसने एक बढ़ते खतरे का अंत कर दिया है। अमेरिका ने बगदादी के खतरे को कितना कम आंका था यह इसी बात से साबित हो जाता है कि अमेरिका ने बगदादी पर रखी ईनामी राशि को 50 लाख डॉलर से कम कर के 1 लाख डॉलर कर दिया था।

गलती 2
रिपोर्ट पर नहीं डाली नजर
 साल 2012 में आईएस पर आई एक रिपोर्ट को अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने देखा तक नहीं। रक्षा एजेंसी के पूर्व प्रमुख जनरल माइकल टी. फ्लाइन ने बताया कि इस रिपोर्ट को किसी ने देखने लायक नहीं समझा। माइकल उस समय एजेंसी के प्रमुख थे। हाल ही में ओबामा ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश की इन नीतियों की निंदा की थी।

गलती 3
बुराई करेगी अंत
ब्रुकिंग संस्थान से जुड़े प्रोफेसर मैक्केनट्स जो आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के विशेषज्ञ हैं, उनका कहना है कि अमेरिकी अधिकारियों ने यह मान लिया था कि आईएस अपनी बुराईयों के कारण खुद खत्म हो जाएगा इसके लिए ज्यादा परेशान होनी की जरूरत नहीं है। लेकिन आईएस अपनी बुराईयों के साथ तेजी से बढ़ता जा रहा है।

गलती 4
इराक की  नीतियां हुई असफल
इराक तत्कालीन प्रधानमंत्री नुर अल मलिकी के कार्यकाल के दौरान शिया-सुन्नी विवाद बहुत बढ़ गया। मलिकी को ईरान और अमेरिका समर्थन प्राप्त था। इस दौरान अधिकतर नीतियां शियाओं के लिए ही बनाई गईं। नौकरी से लेकर वेतन तक सुन्नी और शिया समुदाय में फर्क किया जाने लगा। सुन्नी समुदाय के अंदर असंतोष पैदा हुआ तो बगदादी के लिए भर्ती करना आसान हो गया।

गलती 5
सीरिया गृहयुद्ध से मिली मदद
2011-12 के बीच सीरिया में गृहयुद्ध शुरू हो गया। यहां के लोग राष्ट्रपति बशर अल असद को सत्ता से हटाना चाहते थे। असद को रूस जैसी शक्ति का समर्थन प्राप्त था। ऐसे में अमेरिका ने भी विद्रोहियों को मदद पहुंचानी शुरू की। गृहयुद्ध के दौरान रक्का जैसे खुद इलाके में आईएस ने खुद को आसानी से स्थापित कर लिया।

टीबी, हैपेटाइटिस बी संक्रमित शरणार्थियों से डरा अमेरिका



अमेरिका पहुंचे शरणार्थी बच्चों में कुछ बीमारियों का खतरा स्थानीय बच्चों से कई गुना ज्यादा है। इतना ही नहीं इनमें से कुछ बीमारियां संक्रमण से फैलती हैं। इससे वहां भी बीमारियां पांव पसार सकती हैं। अमेरिकन जनरल ऑफ पब्लिक हेल्थ की हालिया रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। इस रिपोर्ट के बाद अमेरिका और यूरोप में शरण पाने की कोशिश कर रहे शरणार्थियों को नई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

बीमार हैं बच्चे
रिपोर्ट में कहा गया है कि  भूटान, म्यांमार, कांगो, इथोपिया, इराक और सोमालिया से आए बच्चों में बीमारियों का खतरा कई गुना ज्यादा है। ये बच्चे अमेरिका पहुंचने से पहले ग्रामीण इलाकों और शरणार्थी शिविर में रहते थे। वहां उनको स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने के कारण स्थिति और ज्यादा खराब हो गई है। ये बच्चे साल 2006 से 2012 के बीच अमेरिका पहुंचे हैं।

बच्चों में मिलीं बीमारियां
हैपेटाइटिस बी
देश                   अमेरिकी बच्चों की तुलना में बीमारी का खतरा (फीसदी में)
कांगो                             788
म्यांमार-थाइलैंड                  771
इथोपिया                          405
सोमालिया                        297


टीबी
देश                   अमेरिकी बच्चों की तुलना में बीमारी का खतरा (फीसदी में)
इथोपिया                          128
सोमालिया                        124
म्यांमार-मलेशिया                 112
कांगो                              111
थाइलैंड                            52
इराक                               34


एस.स्टीरकोरालिस यानि गोलकृमी
देश                   अमेरिकी बच्चों की तुलना में बीमारी का खतरा (फीसदी में)
इराक                                239
इथोपिया                             200
कांगो                               168
म्यांमार-थाइलैंड                   142
सोमालिया                           68
मलेशिया                             50




Monday 8 July 2013

तबाही का जिम्मेदार कौन ?




मैंने अकसर विकास बनाम विनाश पर बहुत से लोगों का मत सुना है उनको समझने की कोशिश भी की।  ऐसी कितनी ही बहसों का मैं खुद हिस्सा भी रही हूं। मगर इस साल जून में जिस आपदा का शिकार उत्तराखंड जैसे खूबसूरत राज्य को होना पड़ा वो इसी पृष्ठभूमि पर खड़ी एक त्रासदी थी। ये सब कुछ हो जाने के बाद जब मैंने सारी परिस्थितियों को समझना चाहा तो उसका निष्कर्ष यही निकला कि विकास बनाम विनाश सिर्फ बहस करने का एक मुद्दा नहीं है इस देश की एक कड़वी सच्चाई है।


उत्तराखंड में जो भी हुआ हम उसे सिर्फ प्राकृतिक आपदा कह कर टालना क्यों चाह रहे हैं जबकि हम यह जानते है कि इस सब के पीछे हमारे स्वार्थ थे। हम सब ये अच्छी तरह जानते थे कि जो हम बो रहे हैं वो कोई ऐसी फसल है जो हमें एक ना एक दिन नुकसान ज़रुर पहुंचाएगी। सब कुछ जानते हुए हमने न तो कानूनों की कुछ एहमियत समझी न अपनी परंपराओ की। पहले की धार्मिक यात्राओं से अगर आज की यात्राओं की तुलना करें तो मुनाफे की होड में हमने अपनी कई मान्यताओं को भुला दिया। 1950 से पहले जो यात्राएं होती थी वो चट्टी व्यवस्था के अनुसार हुआ करती थी। इस व्यवस्था में हर पांच किलोमीटर पर ठहरने का एक पड़ाव होता था जहां सारी व्यवस्था की जाती थी। सड़क निर्माण के बाद बहुत तेज़ी से यहां बस्तियों बस गई और आज उन पड़ावो की जगह रंग बिरंगे होटलों ने ले ली है।



पर्यावरण के नियमों को ताक पर रख कर हर तरह से यहां पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है। ढलानों पर होटल, मकान, दुकान का निर्माण करना। उत्तराखंड के पहाड़ो के लिए ये कानून है कि वहां 12 मीटर से ऊंची इमारत का निर्माण नहीं होगा। इस कानून का कितना पालन वहां किया जा रहा है ये कहने की ज़रुरत नहीं है। जिस तरफ देखेगे तो आप को बहुमंजिला इमारते ही नज़र आएंगी। ऐसा नहीं है कि हमारे राजनीतिज्ञ इन सभी चीज़ो से अनजान है। उनके खुद के हित इन सब चीज़ो से कहीं ना कहीं जुडे है। नहीं तो ऐसा कैसे संभव है कि जिस राज्य ने सबसे पहले आपदा मंत्रालय जैसा विभाग बनाया वो ऐसी आपदाओं का सामना नहीं कर सका। इससे ये बात भी साफ है कि किस तरह से इस मंत्रालय में लालफिताशाही अपने पैर जमा चुकी है।

इस सब का ठीकरा सरकार के सिर पर फोड़ कर हम भी नहीं बच सकते क्योंकि हम सब को भी इन सारी बातों का ध्यान खुद भी रखना चाहिए, न सिर्फ उन लोगों को जो वहां के स्थानीय निवासी हैं बल्कि उनको भी जो वहां पर्यटक बन कर जाते हैं।   

पहाड़ों में विकास का श्रेय अगर पर्यटन को दिया जाए तो वहां हो रहे विनाश के लिए भी पर्यटन काफी हद तक ज़िम्मेदार है। आज़ादी के बाद विकास के नाम पर ही पर्वतीय क्षेत्रों में राज्य बसाए गए थे। इस सब के लिए जंगलों की अंधाधुध कटाई, पहाड़ों का काटा जाना, चट्टानों को विस्फोट से उड़ा कर हम अपना काम तो कर लेते हैं मगर कहीं न कहीं हम ये भूल रहें हैं कि ऐसा कर के हम अपनी ही प्राकृतिक धरोहर को खोखला कर रहे हैं। जहां तक पहाड़ो को काटने की बात है तो कई बार ये दलील दी जाती है कि ऐसा ना कर के हम पहाड़ी इलाकों में विकास पहुंचाने में अक्षम हैं,  किसी तरह इस तर्क को मान भी ले तो क्या ये ज़रुरी है कि विस्फोट कर के ही सुरंग निर्माण  किया जाए। बिल्कुल नहीं हमारे पास इसका विकल्प है सुरंग बनाने के लिए अगर टनल बोरिंग मशीन का प्रयोग करा जाए तो इससे  पहाड़ न तो कमज़ोर होते है न ही खोखले। मगर आज हमने काम के खर्चे और समय बचाने के लिए विस्फोट करना ज्यादा सही समझ रखा है।

केदारनाथ जहां सब से ज्यादा तबाही हुई वहां के ऊंचे इलाको में कई ग्लेशियर हैं वहां ज्यादा ज़ोर से बोलने तक की मनाही है। ये सब जानते हुए भी गुप्तकाशी से केदारनाथ तक के लिए कई हवाई जहाज़ रोज़ उड़ाने भरते हैं। जिन इलाकों में ज़ोर से बोलने तक की मनाही है वहां रोज़ हवाई जहाज का शोर हो तो यकीनन ये उन ग्लेशियरो के लिए अच्छा नहीं है। उत्तराखंड में कई बिजली परियोजनाएं चल रहीं है इन सब से तो सभी वाकिफ है मगर क्या  हम ये भी जानते है कि इस सब से जितना भी मलबा निकलता है वो कहां जाता है?


कहीं और नहीं उन्ही नदियों में जिनकी पूजा हम किया करते हैं। ऐसे में जब ये नदियां अपने पूरे उफान पर होती है तो अपने साथ हज़ारों बस्तियां बहा ले जाती हैं। तो अब हम ये क्यों कह रहे हैं कि अलकनंदा नाराज़ है या मंदकिनी नाराज़ है? हम क्या उनकी नाराज़गी का कारण नहीं जानतेहम जानते हैं। सब जानते है शायद तभी अपनी गलतियों का ठीकरा भगवान पर फोड़ कर इसको प्राकृतिक आपदा बता रहे हैं। आज हम ये भूल गए है कि प्रकृति के अस्तित्व को साथ ले कर ही हम अपना विकास भी कर सकते हैं। वरना हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हम विस्फोट के ऐसे ढेर पर बैठे है जो बिना किसी चेतावनी के फट जाएगा और हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे।  

Saturday 5 January 2013

सिर्फ आंदोलन नहीं नारी आंदोलन




इतिहास अब उसकी भी कहानी है । वो जो 15 दिन तक जीने के लिए मौत से लड़ती रही।

वो जो खुद मौत की नींद में सो गई मगर अपने पीछे हज़ारो लड़कियों को जगा कर चली गई। अब से पहले कभी भी न्याय के लिए इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं ने एकजुट हो कर आवाज़ नहीं उठाई थी। यह आंदोलन सिर्फ न्याय के लिए एक आंदोलन नहीं था बल्कि एक चुपी टूटने का संकेत था । संकेत था कि बस ! अब और नहीं । संकेत था कि कोई और लड़की अब किसी की हवस का शिकार नहीं बनेगी। संकेत यह भी था कि अब कोई भी अत्याचारों को नहीं सहेगी।

      कहने को तो यह दुनिया का पहला ऐसा अनोखा मामला नहीं था कि जिस से अब तक सब अनजान थे। महिलाओं के लिए भी राह चलते छेडखानी आम बात हो गई थी। इसको या तो सब ने नज़रअंदाज करना सिख लिया था या इसी तरह की घटनाओं के साथ जीना सिख लिया था। इस घटना के होते ही सभी महिलाओं ने पीड़ित युवती के साथ अपनी या अपनी बेटी, बहन की छवि को उसमें देखा जो रोज़ ऐसी छेडखानी का सामना करती है। सबसे बड़ा कारण यही था जिससे ज्यादा से ज्यादा महिलाएं इस आंदोलन में जुड़ी। इसमें ना सिर्फ छात्राएं थी बल्कि कामकाजी वर्ग के साथ साथ गृहणियां भी शामिल थी। सभी वर्ग की महिलाए खुद से इस आंदोलन का जुड़ाव महसुस कर रही थी।

      सभी इसको सुधार की एक सीढ़ी की तरह  देख रहीं हैं। सुधार मानसिकता में, सुधार समाज में , सुधार महिलाओं की स्थिति में। रोज़ेन बर ने कहा है कि महिलाओं को यह बात समझनी अभी बाकि है कि उसको बराबरी या सत्ता कोई नहीं देगा उसे इसको छीनना ही होगा। यह बात अब महिलाओं के समझ में आ गई है। इस लिए अब वो अपने अधिकारों अपनी स्वतंत्रता के लिए उठ खड़ी हुई हैं। वो अब थक चुकी हैं कि महिला होने के नाते उसे समाज में हर कदम पर समझौते करने पड़ेगे। आखिर वो ही क्यों ? इस सवाल का जवाब ढुढ़ने के लिए ही सब सड़को पर उतरे थे एक आवाज़ बन कर। लड़कियों में यह जज़्बा था कि वो जो कभी इन सब मामलों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती थी चुपचाप सब सहती थी इस के माध्यम से ही सही समाज में अपनी आवाज़ तो उठा पाएंगी।

      औरतों को हमारे समाज में कभी भी बराबरी का मौका नहीं मिलता । हमेशा से ही एक पितृसत्ता उस के ऊपर होती है। शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और बुढ़ापे में आ कर बेटा। कदम कदम पर उसको किसी का मौहताज कर दिया जाता है। हमेशा उसको खुले प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में आने के लिए जद्दोजहत करनी पड़ती है। उसको सिखाया जाता है कि ये दुनिया भले सब के लिए गोल है मगर उसके लिए यह चपटी है। अगर वो यहा घूमेगी तो एक सिरे पर आ कर गिर जाएगी। इसलिए हमेशा एक बैसाखी उसको पकड़ा दी जाती है। जिसकी शक्ल हर कदम पर बदल दी जाती है।

      इसलिए इस आंदोलन को एक नारी आंदोलन की तरह देखा जाना जरुरी हैं। ना बल्कि देखा जाना इसके लिए ऐसे ठोस कदम भी उठाने की ज़रुरत है जिसके रहते फिर कभी स्त्रियों को किसी तरह की बैसाखी की ज़रुरत ना पड़े और ना ही अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जरुरत पड़े।

Saturday 8 December 2012

अब बढेंगी मुश्किले।।

                    खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष  विदेशी निवेश के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के दो  प्रमुख विरोधी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी संप्रग सरकार के साथ खड़े दिखे। पहले तो इन दोनों ने ही विदेशी निवेश को ले कर अपने पत्ते नहीं खोले थे और काफी हद तक इसको देश के हित में मानने को तैयार नहीं थे। समाजवादी पार्टी तो अब तक ये ही कह रही है की वो उत्तर प्रदेश में इससे नहीं लाएगी।  दोनों दलों  ने मेहेज़  अपनी  भाजपा से दूरी  बनाए रखने के लिए ही इस प्रस्ताव का समर्थन किया। जिसके चलते खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर  विपक्ष द्वारा लाये गए प्रस्ताव जिसमे इसको रद्द करने की बात थी , में विपक्ष का विरोध किया।
                    यहाँ तक तो बात समझ में आती है मगर असली मुसीबत समाजवादी  पार्टी के लिए अब खड़ी होने जा रही है। बसपा ने जब सरकार का समर्थन किया था तो उसके पीछे उसकी विशेष मंशा छुपी हुई थी।  बसपा का ऐसा मानना  है की ताज कोरिडोर मामले में भाजपा ने उनको फसाया। इस वजह से एक बदले की तरह ही सही बसपा भाजपा के विरोध में खड़ी  है। साथ ही कही न कही बसपा की ये मंशा भी ज़रूर रही होगी की सरकार का समर्थन कर देने से बसपा पर लटक रहा सीबीआई के  शिकंजा से उससे कुछ राहत मिल जाए।
बसपा ने एक तरह से सरकार का समर्थन कर के अप्रत्यक्ष रूप से एक समझौता  किया है। असल मुद्दा अब संविधान संशोधन का है। जिसमे अनुसूचित जाती और जनजाति को पदौन्नती में   आरक्षण देने की बात है।


                इस सब को दखते हुए मुसीबत अब समाजवादी  पार्टी के लिए बढ़ने वाली है। सपा का कहना है की यह संशोधन का प्रस्ताव देश के 85 प्रतिशत जनसँख्या का विरोध करता है। अगर ये प्रस्ताव लाया जाता है तो इस  पर सपा सरकार के साथ खड़ी  नहीं होगी। इतना ही नहीं भविष्य के लिए भी सपा संप्रग सरकार से सचेत हो जाएगी। इस मुद्दे पर यदि सभी दल एक साथ भी खड़े हुए तो भी सपा इसके विरोध के मुड में ही दिख रही है। जिस सपा ने संप्रग सरकार को आखरी वक्त पे आकर मुसीबत से निकला है चाहे वो खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का मामला हो या राष्ट्रपति चुनाव का, उसे 2014 के  लोकसभा चुनाव में संप्रग से बदला निकलने का मौका अवाश्य मिल जाएगा और वर्त्तमान के समीकरणों को देखे तो  हो सकता है संप्रग को उस समय सपा के सामने अपने घुटने टेकने पद जाए।