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Saturday 5 January 2013

सिर्फ आंदोलन नहीं नारी आंदोलन




इतिहास अब उसकी भी कहानी है । वो जो 15 दिन तक जीने के लिए मौत से लड़ती रही।

वो जो खुद मौत की नींद में सो गई मगर अपने पीछे हज़ारो लड़कियों को जगा कर चली गई। अब से पहले कभी भी न्याय के लिए इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं ने एकजुट हो कर आवाज़ नहीं उठाई थी। यह आंदोलन सिर्फ न्याय के लिए एक आंदोलन नहीं था बल्कि एक चुपी टूटने का संकेत था । संकेत था कि बस ! अब और नहीं । संकेत था कि कोई और लड़की अब किसी की हवस का शिकार नहीं बनेगी। संकेत यह भी था कि अब कोई भी अत्याचारों को नहीं सहेगी।

      कहने को तो यह दुनिया का पहला ऐसा अनोखा मामला नहीं था कि जिस से अब तक सब अनजान थे। महिलाओं के लिए भी राह चलते छेडखानी आम बात हो गई थी। इसको या तो सब ने नज़रअंदाज करना सिख लिया था या इसी तरह की घटनाओं के साथ जीना सिख लिया था। इस घटना के होते ही सभी महिलाओं ने पीड़ित युवती के साथ अपनी या अपनी बेटी, बहन की छवि को उसमें देखा जो रोज़ ऐसी छेडखानी का सामना करती है। सबसे बड़ा कारण यही था जिससे ज्यादा से ज्यादा महिलाएं इस आंदोलन में जुड़ी। इसमें ना सिर्फ छात्राएं थी बल्कि कामकाजी वर्ग के साथ साथ गृहणियां भी शामिल थी। सभी वर्ग की महिलाए खुद से इस आंदोलन का जुड़ाव महसुस कर रही थी।

      सभी इसको सुधार की एक सीढ़ी की तरह  देख रहीं हैं। सुधार मानसिकता में, सुधार समाज में , सुधार महिलाओं की स्थिति में। रोज़ेन बर ने कहा है कि महिलाओं को यह बात समझनी अभी बाकि है कि उसको बराबरी या सत्ता कोई नहीं देगा उसे इसको छीनना ही होगा। यह बात अब महिलाओं के समझ में आ गई है। इस लिए अब वो अपने अधिकारों अपनी स्वतंत्रता के लिए उठ खड़ी हुई हैं। वो अब थक चुकी हैं कि महिला होने के नाते उसे समाज में हर कदम पर समझौते करने पड़ेगे। आखिर वो ही क्यों ? इस सवाल का जवाब ढुढ़ने के लिए ही सब सड़को पर उतरे थे एक आवाज़ बन कर। लड़कियों में यह जज़्बा था कि वो जो कभी इन सब मामलों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती थी चुपचाप सब सहती थी इस के माध्यम से ही सही समाज में अपनी आवाज़ तो उठा पाएंगी।

      औरतों को हमारे समाज में कभी भी बराबरी का मौका नहीं मिलता । हमेशा से ही एक पितृसत्ता उस के ऊपर होती है। शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और बुढ़ापे में आ कर बेटा। कदम कदम पर उसको किसी का मौहताज कर दिया जाता है। हमेशा उसको खुले प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में आने के लिए जद्दोजहत करनी पड़ती है। उसको सिखाया जाता है कि ये दुनिया भले सब के लिए गोल है मगर उसके लिए यह चपटी है। अगर वो यहा घूमेगी तो एक सिरे पर आ कर गिर जाएगी। इसलिए हमेशा एक बैसाखी उसको पकड़ा दी जाती है। जिसकी शक्ल हर कदम पर बदल दी जाती है।

      इसलिए इस आंदोलन को एक नारी आंदोलन की तरह देखा जाना जरुरी हैं। ना बल्कि देखा जाना इसके लिए ऐसे ठोस कदम भी उठाने की ज़रुरत है जिसके रहते फिर कभी स्त्रियों को किसी तरह की बैसाखी की ज़रुरत ना पड़े और ना ही अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जरुरत पड़े।

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