यू.पी.ए सरकार के संकट मोचक प्रणब मुखर्जी अब देश के प्रथम नागरिक बन गए है। प्रणब दा ने देश के 13वे राष्ट्रपति के रूप में देश की कमान संभाल ली है। दादा का रायसीना हिल्स तक का यह सफ़र काफी रोचक रहा। वैसे सम्वेह्धानिक तौर पर हमारे देश के राष्ट्रपति चुनाव में आम जनता प्रत्यक्ष तौर पर हिस्सा लेने की हक़दार नहीं है। मगर इस बार के राष्ट्रपति चुनाव लोक सभा चुनाव से कम दिलचस्प नहीं रहे।
प्रणब दा अब देश के 13वे राष्ट्रपति है। आज़ाद भारत का यह 14वा राष्ट्रपति कार्यकाल है जिसकी ज़िम्मेदारी दादा के कंधो पर है। उम्मीद है यह कार्यकाल भी देश के पूर्व महान राष्ट्रपतियों के कार्यकाल जैसा रहते हुए देश तरक्की के मार्ग पर बढेगा। साथ ही प्रणब मुखर्जी का नाम इतिहास के सुनहरे पन्नो पर स्वर्णीम अक्षरों से लिखा जाएगा।
दोनों ही गठबन्धनो ने अपने उम्मेद्वारो को रायसीना हिल्स पहुचने की ठान ली थी। जहाँ एक तरफ यू .पी .ए की तरफ से मैदान में प्रणब मुखर्जी को उतरने की बात कही जा रही थी। वही दूसरी तरफ भाजपा ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले थे। अभी बड़े बड़े नेताओ के नाम पर चर्चा जारी ही थी की रांकपा के पी.ए.संगमा ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी। संगमा ने खुद को रायसीना हिल्स तक ले जाने के लिए यह तर्क रखा था की वो देश में आदी वासी समुदाय का नेत्रत्व करते है और अभी तक देश में कोई भी आदिवासी राष्ट्रपति नहीं रहा। उनकी खुद की पार्टी ने इस दौड़ में उनसे दुरी बनाए रखी किन्तु नविन पटनायक और जय ललिता ने उनको अपना समर्थन दिया। यू.पी.ए की तरफ से अब प्रणब संगमा के सामने थे। मगर दादा की इस दौड़ में दीदी अभी भी रूठी नज़र आ रही थी। केन्द्र सरकार से बात बात पर नाराज़ रहने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रुख इस बार भी कुछ उकडी उकडी सा नज़र आया। हालाँकि एक बंगाली का राष्ट्रपति बनना पुरे पश्चिम बंगाल के लिए गर्व की बात मानी जा रही थी मगर ऐसे में भी दीदी थी के मानने को तैयार नहीं। ममता बनर्जी ने हद तो उस वक्त कर दी जब उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम सुझा डाला। ममता बनर्जी की तरफ से दो अन्य नाम भी सुझाए गए मगर उन लोगो ने खुद ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया इसमें पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम का नाम भी शामिल था। ऐसे में एन.डी.ए से नाराज़ चल रहे बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने दादा को अपना समर्थन दे डाला। एन.डी.ए इस संकट से पार पा पाती की एन.डी.ए के एक और प्रमुख घटक दल शिव सेना ने भी नितीश के नक़्शे कदम पर चलते हुए प्रणब दा का समर्थन कर के अपने ही गठबंधन के लिए संकट बाधा दिया।
एन.डी.ए भी संगमा का हाथ थाम अब चुनाव मैदान में थी। संगमा भी अपने जीत के प्रति आश्वस्त थे। उन्होंने सभी दलों से मिल कर वोट देने की अपील की और उन्हें पूरा यकीन था की 1967 के राष्ट्रपति चुनाव के तरह ही इस बार भी लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनेगे। चुनाव की घडी नज़दीक आते आते यू.पी.ए ने भी ममता को मानाने की पूरी कोशिश कर डाली। बसपा और सपा के सहयोग से मुखर्जी का पलड़ा भारी दिख रहा था तब भी दादा ममता के सहयोग के बिना यह चुनाव लड़ना नहीं कहते थे। देर सवेर दीदी भी मान गयी और दादा को समर्थन देने की बात कह डाली। अब यह सब आर्थिक सहयता से वंचित ममता की नारजगी थी या कुछ और यह तो ममता ही जाने।
चुनाव नामांकन नजदीक आते आते अपनी जीत से आश्वस्त संगमा ने कई बातों पर दादा प्रणब मुखर्जी के नाम पर कई सवाल उठाये चाहे वो भारतीय सांख्यकी समिति से इस्तीफा न देने की बात हो या उनके हस्ताक्षरों की प्रणब मुखर्जी ने सभी संकतो से पार पा लिया।
नामांकन के पश्चात पी.ए.संगमा और प्रणब मुखर्जी ही मैदान में बचे रहे बाकि सभी नामो को रद्द कर दिया गया।
नतीजो की घोषणा होने के बाद जहाँ एक तरफ प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन का रुख किया वही संगमा अब मुखर्जी की उम्मीदवारी के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाने को तैयार दिखे मगर अब इस सफ़र में संगमा अकेले ही रह गए।