असम और म्यांमार में हो रही हिंसा की लपटे अब देश के दूसरे कोने में भी उठने लगी है। पुणे, मुंबई या उत्तर प्रदेश हर जगह लोग अल्पसंख्यको पर हो रहे हमले को ले कर लोग आक्रोशित है।मगर कही न कही इन चिंगारियों को हवा देने का काम सोशल मीडिया का रहा।
वर्त्तमान में जो कुछ भी हो रहा है यह मात्र उदहारण स्वरुप है। आज लोगो ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल तो धडल्ले से करना सीख लिया है मगर वहीँ इसकी संवेदनशीलता को नज़रंदाज़ किया है। जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। जिस समाज में हम रह रहे है वहां बल्क एसएम्एस को प्रतिबंदित करना एक बार सोचा जा सकता है किन्तु सोशल मीडिया पर प्रतिबन्ध की बात करना अव्यवहारिक तो है ही साथ ही यह अधूरी समझ का नतीजा है।
हाल ही में कई ऐसे उदाहरण देखने को मिले जिसके मद्देनज़र फेसबुक, ट्विटर , यु-टूयूब आदि पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कही गयी।यह अव्यावहारिक तो है ही साथ ही कई तकनीकी पेच की उलझाने भी इसमें है। तो ऐसे में अब सवाल यह उठता है की किस प्रकार से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रही हलचल की निगरानी की जा सके।
ऐसे में सरकार को चाहिए की वह एक ऐसा तंत्र बनाए जिसके द्वारा किसी भी ऐसी गतिविधि पर नज़र रखी जा सके जो देश की एकता व अखंडता पर प्रहार करती हो। ऐसे तंत्र को तैयार करने में पुलिस बलों को भी इसके अंतर्गत रखा जाना चाहिए। इस प्रकार की अफवाहों को रोकने के लिए यह संभव है की आने वाले दिनों में पुलिस व अन्य सरकारी तंत्रों को फेसबुक, ट्विटर आदि का इस्तेमाल करना सिखाया जाए। इन सभी साइट्स का इस्तेमाल करने वालो में सबसे अधिक युवा वर्ग है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की युवाओं में कोई भी अफवाह जंगल की आग की तरह फैलती है। ऐसे में ऐसा तंत्र बनाना ही मात्र विकल्प के तौर पर नज़र आता है।
असम में हो रही हिंसा या देश के अन्य हिस्सों में उत्तरपूर्वी लोगो पर हो रहे हमले के लिए सोशल मीडिया को ज़िम्मेदार बताना स्थिति को नज़रंदाज़ करना है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए की सोशल मीडिया साधन मात्र है। वास्तव में दोषी वो लोग है जो इस प्रकार की अमानवीय नियत का प्रदर्शन कर रहे है।
वर्त्तमान में जो कुछ भी हो रहा है यह मात्र उदहारण स्वरुप है। आज लोगो ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल तो धडल्ले से करना सीख लिया है मगर वहीँ इसकी संवेदनशीलता को नज़रंदाज़ किया है। जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। जिस समाज में हम रह रहे है वहां बल्क एसएम्एस को प्रतिबंदित करना एक बार सोचा जा सकता है किन्तु सोशल मीडिया पर प्रतिबन्ध की बात करना अव्यवहारिक तो है ही साथ ही यह अधूरी समझ का नतीजा है।
हाल ही में कई ऐसे उदाहरण देखने को मिले जिसके मद्देनज़र फेसबुक, ट्विटर , यु-टूयूब आदि पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कही गयी।यह अव्यावहारिक तो है ही साथ ही कई तकनीकी पेच की उलझाने भी इसमें है। तो ऐसे में अब सवाल यह उठता है की किस प्रकार से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रही हलचल की निगरानी की जा सके।
ऐसे में सरकार को चाहिए की वह एक ऐसा तंत्र बनाए जिसके द्वारा किसी भी ऐसी गतिविधि पर नज़र रखी जा सके जो देश की एकता व अखंडता पर प्रहार करती हो। ऐसे तंत्र को तैयार करने में पुलिस बलों को भी इसके अंतर्गत रखा जाना चाहिए। इस प्रकार की अफवाहों को रोकने के लिए यह संभव है की आने वाले दिनों में पुलिस व अन्य सरकारी तंत्रों को फेसबुक, ट्विटर आदि का इस्तेमाल करना सिखाया जाए। इन सभी साइट्स का इस्तेमाल करने वालो में सबसे अधिक युवा वर्ग है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की युवाओं में कोई भी अफवाह जंगल की आग की तरह फैलती है। ऐसे में ऐसा तंत्र बनाना ही मात्र विकल्प के तौर पर नज़र आता है।